"फुल मत कहना मुझे काटो में जीना पंसद नहीं,
फुल तो मुरझा ज्याते हैं, भवरे फिरते है फुलों के चारो और...।
ना वो किसी का अपना ना परायां होता है
फुल का ना सराया, ना घर कोई उसका होता है।
किसी के सहरेका, गलेका, मय्यत का, मित का,प्रित का, कुछ पलों का दींदार, आँखों का सुकुंन होता है.... फुलं।
ये सब मंजूर है तुंम्हे तो तुम भी कहना मुझे फुल
फुंल मुझे भी पंसद है, फुल कहलाना नहीं। .................................................सौ..सुरजकुमारी गोस्वामी..
कळंब [हैद्राबाद ]
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